हर रंग
कविता क्या है
मन की कल्पना
तन की अल्पना
प्रकृति के रंगों की रंजना
टेढे-मेढ़े पथरीले रस्तों पर चलता कोई अनमना
यही कवि का परिचय है
-----------
अपनापा
मैं
हाथ तेरा हाथ में ले
पवन बांधू साथ
चलूं सागर सात,
सातो भौम
अपनापा रचूं।
मैं रचूं एक-एक अणु में आस्था
भाव भर दूं
सूत्र-से साकार दूं
कुछ पैहरन बेकार
वो उतार दूं
हो वही मौलिक
कि जितना रच रहा
आवरण सारे वृथा उघाड़ दूं
-----------
तृप्तिबोध
तृप्तिबोध
तूने दिया
तूने बताया मैने पीया हलाहल
अब बच नहीं पाऊंगा
.....
तुझे क्या पता
तेरा यही रूप देखने
जी रहा था मैं
हां, अतृप्त
-----------
चेहरे चार
1.
सात समंदर-सात आसमां
सात शत्रु हैं मेरे
सभी दिशा-दरवाजे देखे
खुले सातवें फेरे
इतने जतन सत् शोधन को
कितने हुए सवेरे
सूरज बोला
निकल अंधेरे
देखले सच्चे चेहरे
2.
भाषा तेरी
भाषण मेरे
चेहरे पर हैं चेहरे
कौन दोस्त, किसे दुश्मन मानें
पहचानें पर संकट जानें
आस्तीन को कौन खंगाले
संकर हुए सपेरे
3.
रेत का सागर, तपते धोरे
सपने सीझे मुंह अंधेरे
सुबह जगें तो जलते खीरे
पानी बहुत है गहरे
पानी बहुत है गहरे
4.
रतजगे मेरे
भाव घनेरे
कैसे प्रकटूं तेरे-मेरे
तीजे नाम पे तलपट हो गई
इतने तेरे-उतने मेरे
टूटे सारे पहरे
-----------
कई बार
मुझे कई बार उतरना पड़ा है
सैलून की सीट से
थर्ड की टिकट-खिड़की पर
नंबर आते-आते
कई बार धकेला गया हूं मैं
पीड़ा हर बार हुई
मलहम लगाकर छुट्टी की
कभी कुरेदा ही नहीं
नासूर बनने नहीं दिए ऐसे घाव
क्योंकि माना गया जिसे नियति
उससे उलाहना क्या
फिर ऐसे लोगों की
स्टोरी भी तो नहीं बनती
-------------------
न बाहर, न बाद
ढाणियों पर राज को
बांटने समाज को
चलती है तलवारें
रिश्तों की गर्मी पिघल जाती है रोज
खुलते हैं अपने-अपने क्षेत्र
कह दें कुरुक्षेत्र
रचती है महाभारत
पीढ़ियां पढ़ाने के लिए
घड़ दिया जाता है इतिहास
द्रोपदी की लाज, पांडवों का वनवास
कृष्ण का अघोषित रास
आज भी बिकता है।
कृष्ण की गवाही पर पांडव बरी
शकुनि की कोशिशें नाकाम
दुर्योधन बदनाम
त्रियाचरित्र के क्लाईमैक्स के साथ
खत्म होती है महाभारत
सत्यवती से द्रोपदी तक सबूत ही सबूत
महाभारत खत्म होती है
भीष्म को मिलता है
लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड
शिखंडी यहां भी नहीं होता है
अन्न के कांसेप्ट पर झुक जाते हैं सबके शीश
फिर कौन पूछे भीष्म से महाभारत का कारण
आज भी छाती ठोककर कहता है वेदव्यास
न जयसंहिता से बाहर, न है कुछ भी इसके बाद
दोहराई जाती है द्रोपदी
सम्मान पाते हैं देवव्रत साहब।
-----------
बुलबुले
काले झंडे, मुर्दाबाद की तख्तियां
कसकर बांधी मुट्ठियां
अतिरेक में इनकलाबी
लगता है दूर नहीं आजादी
असली आजादी
फिर सब सामान्य
नियंत्रण में लगता है माहौल
मिल जाते हैं अधिकार
मिल जाती है आजादी
हर बार मिलती है यह आजादी
असली आजादी
फिर एक दिन तख्तियां निकल आती हैं
मुट्ठियां भिंच जाती हैं
आजादी मांगी जाती है
पूछलें-पिछली का क्या हुआ
जवाब होगा-खा-पीकर खत्म की
---------------------
क्योंकि आदमी हैं हम
1.
मैं सरयू तट पर नाव लेकर
आरण्यक में एक से दूसरी शाख पर झूलते
लंका में अस्तित्त्वबोध के शब्द को संजोए
अपनी कुटिया में रामनाम मांडे
अलख जगाए-धूनी रमाए
प्रतीक्षा करता हूं-प्रभु की
और निष्ठुर प्रभु आते ही नहीं।
2.
चाहता हूं प्रभु
फिर तुम्हें एक लंबा वनवास मिले
अपने परिवार से होकर अलग
तुम वन-वन भटको
रात-रात भर सीते-सीते करते जागो
फिर जब सीता मिले
उसको भी त्यागो
3.
हे राम!
पुरुषोत्तम की यह उपाधि
तुम्हे यूं ही नहीं दी गई है
मर्यादा के, साक्षात सत्य के अवतार थे तुम तो
तभी तो तुम पुरुषोत्तम कहलाए।
विश्वसुंदरी की तरह चलवैजयंती भी नहीं है यह उपाधि
जो हर साल किसी और को मिल जाए
क्या तुम्हें इतना भी पता नहीं है!
4.
प्रभु!
इतने स्वार्थी मत बनो
मानवता के नाते आओ
हे अवतार! हे तारणहार!
हमें इन अमानुषों
समाजकंटकों से बचाओ
कब तक हम
इन दानवों से लड़ सकते हैं
आखिर तो बाल-बच्चेदार हैं
परिवार-घरबार, भरापूरा संसार है
कैसे बिखरती देख सकती हैं
मेरी इंसानी आंखें यह सब
5.
वादा रहा
आपका संघर्ष व्यर्थ नहीं जाने दूंगा
मंदिर बनवाऊंगा, मूर्तियां लगवाऊंगा
मानवता के प्रति आपकी भूमिका के पेटे
एक वाल्मीकी, हाथों-हाथ अपॉइंट करवा दूंगा
वक्त-जरूरत
तुलसीदास जैसों की सेवाएं भी ली जाएंगी
आप आइये जरूर खूब महिमा गाई जाएंगी।
--------------------------
शहर मेरा
पहला
हॉर्न होते हैं संक्रामक
बजते ही जाते हैं
मेरा शहर, जहां नहीं है वन-वे
जाने क्यों फिर भी
लोग नहीं टकराते हैं
तुम कह सकते हो सहिष्णु हैं
टकराकर भी कहते हैं जाने भी दो यार
या के इतने हो गए हैं ढीठ
जानते हैं, होना क्या है
ये शहर ऐसे ही चलेगा
किस-किस से करेंगे तकरार
दूजा
मुझे लगता है
सुकून-सिर्फ आरओबी पर मिलेगा
सबसे ऊंची जगह
दिखती है सिर्फ दौड़ती गाड़ियां
मैं रुकता हूं
रात कुछ बाकी
कुछ कोल्ड... कुछ ड्रिंक्स
सबकुछ अपने मन जैसा
अचानक, कोई पुकारता है
हरीश!
मैं झल्लाता हूं....
यार, ये शहर इतना छोटा क्यों है
तीजा
उन्हें चाहिए कान्वेंट की कविता
और मैं मारजा की दी ईंट को
हाथ पर रखे
घोटता पाटी
जूझता हूं कविता से
कवायद कविता की नहीं
चाहत, अंतर पाटने की है
इस कोर्ट मैरिज में
मैं कहीं सुन ही नहीं पाता
अंतरपट दो खोल
-----------------
जिंदगी
जीवन को
धूप-छांव का सहकार कहो
या दाना चुगती चिड़ियों के साथ
नादां का व्यवहार
पागल के हाथ पड़ी माचिस-सी होती है जिंदगी
दीवाली की लापसी, ईद की सिवइयां
क्रिसमस ट्री पर सजे चॉकलेट्स से
बहुत मीठी होती है जिंदगी
जिसे जीना पड़ता है
लेकिन सुधी पाठक ज्यादा माथा नहीं दुखाते
किताब बंद करते होते हैं
जब समाप्त लिखा आता है।
पेपरवेट
फड़फड़ाते कागजों के हाथों
'आखा' देकर, पवित्रता की पैरवी करती
दंतकथाएं सुनाती बुढ़ियाएं
कितनी ही तीज-चौथ करवा चुकी है
लेकिन अब ये पेपरवेट कम होने लगे हैं
उड़ने लगे हैं कथा के कागज
चौड़े आने लगा है चंदामामा से धर्मेला
तीज-चौथ आज भी आती है
भूखे पेट रहकर, आखा हाथ मे रखकर
बची-खुची बुढ़ियाएं तलाश, कथाएं फिर सुनी जाती है
फिर होती है ऐसे पतियों पर बहस
घंटों चलती है - उस जमाने पर टीका-टिप्पणी
सीता और द्रोपदी के दुख-सुख पर चटखारे
चलनी की आड़ से देखे चांद की
खूबसूरती भी शेयर की जाती है
'हम ही क्यों रखें व्रत'
ऐसी सुगबुगाहट भी होती है
कुछ ऐसी बातों पर ध्यान नहीं देते
कहते हैं-बाकी है अभी बहुत कुछ
कुछ कहते हैं-खेल ही अब शुरू होगा बराबरी का
जब कुछ भी नहीं रहेगा चोरी-छाने
-----------
Search
“माँ सरस्वती-शारदा”
ॐ श्री गणेशाय नमः !
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना |
याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
या कुंदेंदु तुषार हार धवला, या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा वरदंडमंडितकरा या श्वेतपद्मासना |
याब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निश्शेषजाढ्यापहा ||
प्रवर्ग
"विविध रचनाएँ
(1)
अनुवाद
(3)
अमित पुरोहित की लघुकथा
(1)
अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य
(1)
आचार्य संजीव वर्मा ’सलिल’- वासंती दोहा गजल
(1)
आलेख
(11)
कथांचल
(1)
कविताएँ
(140)
कहानियाँ
(4)
क्षणिकाएँ
(2)
क्षणिकाएं
(1)
गजलें
(49)
गीत
(9)
टी. महादेव राव की गजलें
(1)
डा. अनिल चड्ढा की कविता
(1)
त्रिपदी
(1)
दीपावली विशेषांक
(1)
देवी नागरानी की गजलें
(1)
दोहे
(1)
नज़्म
(1)
नज्में
(2)
नन्दलाल भारती की कविताएँ
(1)
नव गीतिका
(1)
नवगीत
(1)
नाटक - सुनील गज्जाणी
(1)
पुरू मालव की रचनाएँ
(1)
पुस्तक समीक्षा
(2)
फादर्स-डे
(1)
बाल कविताएँ
(1)
बाल कहानियाँ
(1)
महादेवी वर्मा
(1)
महोत्सव
(2)
मातृ दिवस
(1)
यात्रा वृत्तांत
(1)
रश्मि प्रभा की कविता
(1)
लघु कथाएँ
(3)
लघुकथाएँ
(9)
विजय सिंह नाहटा की कविताएँ
(3)
विविध रचनाएँ
(6)
व्यंग्य
(4)
व्यंग्य - सूर्यकुमार पांडेय
(1)
संकलन
(1)
संजय जनागल की लघुकथाएँ
(3)
समसामयिक
(1)
समीक्षा- एक अवलोकन
(1)
संस्मरण - यशवन्त कोठारी
(1)
सीमा गुप्ता की कविताएँ
(3)
सुनील गज्जाणी की लघु कथाएँ
(4)
सुनील गज्जाणी की कविताएँ
(6)
सुलभ जायसवाल की कविता
(1)
हरीश बी. शर्मा की कविताएँ
(1)
हाइकू
(1)
हास-परिहास
(2)
हास्य-व्यंग्य कविताएँ
(1)
होली विशेषांक
(1)
ताज़ी प्रविष्टियाँ
लोकप्रिय कलम
-
संक्षिप्त परिचय नाम : डॉ. सुनील जोगी जन्म : १ जनवरी १९७१ को कानपुर में। शिक्षा : एम. ए., पी-एच. डी. हिंदी में। कार्यक्षेत्र : विभि...
-
आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी के इस पावन दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ! श्री कृष्ण की कृपा से आप और आपका परिवार सभी सुखी हो, मंगलमय हों, ऐसी प्रभ...
-
नामः- श्रीमती साधना राय पिताः- स्वर्गीय श्री हरि गोविन्द राय (अध्यापक) माता:- श्रीमती प्रभा राय...
-
नाम : डॉ. कविता वाचक्नवी जन्म : 6 फरवरी, (अमृतसर) शिक्षा : एम.ए.-- हिंदी (भाषा एवं साहित्य), एम.फिल.--(स्वर्णपदक) पी.एच.डी. प...
-
रोज गढती हूं एक ख्वाब सहेजती हूं उसे श्रम से क्लांत हथेलियों के बीच आपके दिए अपमान के नश्तर अपने सीने में झेलती हूं सह जा...
-
परिचय सुधीर सक्सेना 'सुधि' की साहित्य लेखन में रुचि बचपन से ही रही। बारह वर्ष की आयु से ही इनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित ...
-
(1) जब कुरेदोगे उसे तुम, फिर हरा हो जाएगा ज़ख्म अपनों का दिया,मुमकिन नहीं भर पायेगा वक्त को पहचान कर जो शख्स चलता है नहीं वक्त ...
-
समीक्षा दिनेश कुमार माली जाने माने प्रकाशक " राज पाल एंड संज "द्वारा प्रकाशित पुस्तक " रेप तथा अन्य कहानियाँ "...
-
आपके समक्ष लगनशील और युवा लेखिका एकता नाहर की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं. इनकी खूबी है कि आप तकनीकी क्षेत्र में अध्ययनरत होने के उपरांत भी हिं...
-
संक्षिप्त परिचय नाम : दीपा जोशी जन्मतिथि : 7 जुलाई 1970 स्थान : नई दिल्ली शिक्षा : कला व शिक्षा स्नातक, क्रियेटिव राइटिंग में डिप्लोमा ...
हम साथ-साथ हैं
लेखा-जोखा
-
▼
2010
(216)
-
▼
January
(38)
- कवि कुलवंत सिंह की कविताएँ
- शशि पाधा और रचना श्रीवास्तव की कविताएँ
- डॉ. अनुज नरवाल रोहतकी की गजलें
- सीताराम गुप्ता का आलेख - सकारात्मक मानसिक दृष्टिको...
- डॉ. टी. महादेव राव की कुछ कविताएँ - हादसा और मुंबई
- अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य - 26 जनवरी में दिल्ली ...
- देवी नागरानी की गजलें
- चक्रव्यूह
- दूरदर्शिता
- बासंती दोहा ग़ज़ल
- हमसे सुनो..
- टी. महादेव राव की गजलें
- पुरू मालव की रचनाएँ
- संजय जनागल की लघुकथाएँ
- मौन जब मुखरित हुआ
- "अंतर्मन"
- "जब कश्ती लेकर उतरोगे "
- तपती दुपहरी
- अतीतः पसरा हुआ
- बूढा बरगद
- बिकता बचपन
- भगवान बचाये बस यात्रा से
- जब तक उनका नाम रहेगा - तब तक सूरज-चांद रहेंगे
- त्रासदी
- विजय सिंह नाहटा की कविताएँ
- वो भिखारी
- उम्र
- बंद मुट्ठी
- हरीश बी. शर्मा की कविताएँ
- ................................आता है नजर
- चुनाव
- निरन्तर
- एक लम्बी बारिश
- किनारे से परे...
- नई कास्टयूम
- प्रार्थना
- वो नजरें
- मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ
-
▼
January
(38)
मेरी पसन्द
-
हां, आज ही, जरूर आयें - विजय नरेश की स्मृति में आज कहानी पाठ कैफी आजमी सभागार में शाम 5.30 बजे जुटेंगे शहर के बुद्धिजीवी, लेखक और कलाकार विजय नरेश की स्मृति में कैफ़ी आज़मी ...
-
-
डेढ़ दिन की दिल्ली में तीन मुलाकातें - *दिल्ली जिनसे आबाद है :* कहने को दिल्ली में दस दिन रहा, पर दस मित्रों से भी मुलाकात नहीं हो सकी। शिक्षा के सरोकार संगोष्ठी में भी तमाम मित्र आए थे, पर...
-
‘खबर’ से ‘बयानबाज़ी’ में बदलती पत्रकारिता - मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया से ‘खबर’ गायब हो गयी है और इसका स्थान ‘बयानबाज़ी’ ने ले लिया है और वह भी ज्यादातर बेफ़िजूल की बयानबाज़ी. नेता,अभिनेता...
-
दीवाली - *दीवाली * एक गंठड़ी मिली मिट्टी से भरी फटे -पुराने कपड़ो की कमरे की पंछेती पर पड़ी ! यादे उभरने लगी खादी का कुर्ता , बाबूजी का पर्याय बेलबूटे की साडी साडी ...
-
-
-
नए घरोंदों की नीव में- दो बिम्ब - *नतमस्तक हूं* ======== मैने नहीं चखा जेठ की दुपहरी में निराई करते उस व्यक्ति के माथे से रिसते पसीने को, मैं नहीं जानता पौष की खून जमा देने वाली बर...
-
-
थार में प्यास - जब लोग गा रहे थे पानी के गीत हम सपनों में देखते थे प्यास भर पानी। समुद्र था भी रेत का इतराया पानी देखता था चेहरों का या फिर चेहरों के पीछे छुपे पौरूष का ही ...
-
-
Advertisement
BThemes
Powered by Blogger.
सम्पादक मंडल
- Narendra Vyas
- मन की उन्मुक्त उड़ान को शब्दों में बाँधने का अदना सा प्रयास भर है मेरा सृजन| हाँ, कुछ रचनाएँ कृत्या,अनुभूति, सृजनगाथा, नवभारत टाईम्स, कुछ मेग्जींस और कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई हैं. हिन्दी साहित्य, कविता, कहानी, आदि हिन्दी की समस्त विधाएँ पढने शौक है। इसीलिये मैंने आखर कलश शुरू किया जिससे मुझे और अधिक लेखकों को पढने, सीखने और उनसे संवाद कायम करने का सुअवसर मिले। दरअसल हिन्दी साहित्य की सेवा में मेरा ये एक छोटा सा प्रयास है, उम्मीद है आप सभी हिन्दी साहित्य प्रेमी मेरे इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन करेंगे।