दीपक 'मशाल' की लघुकथा - मुझे नहीं होना बड़ा


दीपक 'मशाल'
संक्षिप्‍त परिचय
माता- श्रीमति विजयलक्ष्मी
पिता- श्री लोकेश कुमार चौरसिया
जन्म- २४ सितम्बर १९८०, उरई(उत्तर प्रदेश)
प्रारंभिक शिक्षा- कोंच(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- जैवप्रौद्योगिकी में परास्नातक, पी एच डी(शोधार्थी)
संस्थान- क्वीन'स विश्वविद्यालय, बेलफास्ट, उत्तरी आयरलैण्ड, संयुक्त गणराज्य

१४ वर्ष की आयु से साहित्य रचना प्रारंभ की, प्रारंभ में सिर्फ लघु कथाओं, व्यंग्य एवं निबंध लिखने का प्रयास किया। कुछ अभिन्न मित्रों से प्रेरित और प्रोत्साहित होके धीरे-धीरे कविता, ग़ज़ल, एकांकी, कहानियां लिखनी प्रारंभ कीं. अब तक देश व क्षेत्र की कुछ ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में कहानी, कविता, ग़ज़ल, लघुकथा का प्रकाशन, रचनाकार एवं शब्दकार में कुछ ग़ज़ल एवं कविताओं को स्थान मिला. श्रोताओं की तालियाँ, प्रेम एवं आशीर्वचनरूपी सम्मान व पुरस्कार प्राप्त किया.

कृतियाँ- हाल ही में प्रथम काव्य संग्रह 'अनुभूतियाँ' का शिवना प्रकाशन सीहोर से प्रकाशन.

रुचियाँ- साहित्य के अलावा चित्रकारी, अभिनय, पाककला, समीक्षा, निर्देशन, संगीत सुनने में खास रूचि।
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मुझे नहीं होना बड़ा
       आज फिर सुबह-सुबह से शर्मा जी के घर से आता शोर सुनाई दे रहा था. मालूम पड़ा किसी बात को लेकर उनकी अपने छोटे भाई से फिर कलह हो गयी.. बातों ही बातों में बात बहुत बढ़ने लगी और जब हाथापाई की नौबत आ पहुँची तो मुझसे रहा नहीं गया. हालांकि बीच बचाव में मैं भी नाक पर एक घूँसा खा गया और चेहरे पर उनके झगड़े की निशानी कुछ खरोंचें चस्पा हो गयीं, मगर संतोष इस बात का रहा कि मेरे ज़रा से लहू के चढ़ावे से उनका युद्ध किसी महाभारत में तब्दील होने से बच गया. चूंकि मेरे और उनके घर के बीच में सिर्फ एक दीवार का फासला है, लेकिन हमारे रिश्तों में वो फासला भी नहीं. बड़ी आसानी से मैं उनके घर में ज़रा सी भी ऊंची आवाज़ में चलने वाली बातचीत को सुन सकता था. वैसे तो बड़े भाई अमित शर्मा और छोटे अनुराग शर्मा दोनों से ही मेरे दोस्ताना बल्कि कहें तो तीसरे भाई जैसे ही रिश्ते थे लेकिन अल्लाह की मेहरबानी थी कि उन दोनों के बीच आये दिन होने वाले आपसी झगड़े की तरह इस तीसरे भाई से कोई झगडा ना होता था.
      
जिस वक़्त  दोनों भाइयों में झगडा चल रहा था तब अमित जी के दोनों बेटे, बड़ा ७-८ साल का और छोटा ४-५ साल का, सिसियाने से दाल्हान के बाहरी खम्भों ऐसे टिके खड़े थे जैसे कि खम्भे के साथ उन्हें भी मूर्तियों में ढाल दिया गया हो. मगर साथ ही उनकी फटी सी आँखें, खुला मुँह और ज़ोरों से धड़कते सीने की धड़कनों को देख उनके मूर्ति ना होने का भी अहसास होता था.
झगड़ा निपटने के लगभग आधे घंटे बाद जब दोनों कुछ संयत होते दिखे तो उनकी माँ, सुहासिनी भाभी, दोनों बच्चों के लिए दूध से भरे गिलास लेके आयी..

''
चलो तुम लोग जल्दी से दूध पी लो और पढ़ने बैठ जाओ..'' भाभी की आवाज़ से उनके उखड़े हुए मूड का पता चलता था
बड़े ने तो आदेश का पालन करते हुए एक सांस में गिलास खाली कर दिया लेकिन छोटा बेटा ना-नुकुर करने लगा..

भाभी ने उसे बहलाने की कोशिश की- ''दूध नहीं पियोगे तो बड़े कैसे होओगे, बेटा..''

''
मुझे नहीं होना बड़ा'' कहते हुए छोटा अचानक फूट-फूट कर रोने लगा.. ''मुझे छोटा ही रहने दो... भईया मुझे प्यार तो करते हैं, मुझसे झगड़ा तो नहीं करते..''
 
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दीपक 'मशाल'
ब्लॉग- मसि कागद(http://swarnimpal.blogspot.com)
 

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6 Responses to दीपक 'मशाल' की लघुकथा - मुझे नहीं होना बड़ा

  1. masoom se khyaalon ko bahut hi sundar kahani me bandha hai......

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  2. उत्तम है, बस कहानी में थोड़ा सा नाटक भी होना चाहिए जैसा कि अंतिम भाग में आया है।

    ReplyDelete
  3. अरे वाह मेरे छोटे पर हस्सास भाई
    कविता से अधिक तो ये कथा भाई
    लता 'हया '

    ReplyDelete
  4. बाल मनोविज्ञान से सम्बंधित लघुकथा प्रशंसनीय है I
    सुधा भार्गव

    ReplyDelete

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