रचनाकार परिचय
नाम: शमशाद इलाही अंसारी
उपनाम: "शम्स"
जन्म तिथी/स्थान: 1966 जनवरी का 16 वाँ दिन, रात पौने नौ बजे, कस्बा मवाना, ज़िला मेरठ (उत्तर प्रदेश) भारत
शिक्षा: मेरठ कालिज मेरठ से दर्शनशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर 1987 वर्ष 1988 में पी०एच०डी० के लिये पंजीकृत जो किन्ही कारणवश पूरी न हो सकी। पारिवारिक पृष्ठभूमि: मध्यवर्ग, मेहनतकश मुस्लिम परिवार में दो बडे़ भाईयों के बाद तीसरी सन्तान के रुप में पैदाइश हुई, फ़िर एक छोटी बहन और दो भाई, कुल छह भाई बहन. एक छोटे भाई की मृत्यु हो चुकी है। आपके पिता श्री इरशाद इलाही जो साईकिल मेकेनिक थे (1999 में देहांत) को एक पंजाबी हिंदू लाला हँसराज मित्तल ने परवरिश दी एक दत्तक पुत्र की हैसियत से। आपके दादा का स्वर्गवास 1987 में हुआ था. विश्वविख्यात भारतीय गंगा-जमुनी सँस्कृति का साक्षात जीवंत उदाहरण है आपका परिवार।
वैवाहिक जीवन: सिविल मैरिज कोर्ट द्वारा प्रमाणित दिनाँक 18.02.1991 से बाकायदा शादीशुदा, पत्नी का नाम अब ज़किया शमशाद है, पहले वे ज़ैदी थीं. सिविल मैरिज क्यों की इसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं, ज़किया केन्द्रिय विद्यालय में अध्यापन कार्य से जुडी थी| हिंदी उनका विषय है. आप एक पुत्री का पिता भी हैं जिसका जन्म वर्ष 1993 में हुआ|
जीविकोपार्जन गतिविधियाँ: छात्र जीवन से ही आप वाम विचार धारा की राजनीति में संलग्नता पहला पडा़व था, पूर्ण कालिक पार्टी कार्यकर्ता के रुप में आपका यह सफ़र जारी रहा [1988-1989],1989 में ट्रेनी उप-संपादक पद पर मेरठ स्थित अमर उजाला में कुछ समय तक कार्य़ किया| व्यवसायिक प्रतिष्टानों की आन्तरिक राजनीति की पहली पटखनी यहीं खाई। 1990-91 से आपने स्वतंत्र पत्रकारिता शुरु की और दिल्ली के संस्थागत पत्रों को छोड़ कर सभी राज्यों के हिंदी समाचार पत्रों में अनगिनत लेख, रिपोर्ट, साक्षात्कार एंव भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्र, अल्पसंख्यक प्रश्न, सुधारवादी इस्लाम आदि विषयों पर प्रकाशित हुए। आपने समय-समय पर स्थायी नौकरी पाने की कोशिश भी की, मिली भी, लेकिन सब अस्थायी ही रहा।मस्लन हापुड़ तहसील में "नव-भारत टाईम्स" के संवाददाता के सहयोगी के रुप में 1991 से 1996 तक कार्य किया| 1996 से 2001 तक दिल्ली और मानेसर (गुड़गाँव) के बीच भाग-दौड़ में कुछ समय "कुबेर टाईम्स"- दिल्ली का ज़िला गुड़गाँव संवाददाता भी रहा|
दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले "जनपथ-मेल" साप्ताहिक में भी आपने काम किया| सन् 2000 में एक लेखक मित्र के आग्रह पर आपने दिल्ली दूरदर्शन के लिए बने "सरहद के मुहाफ़िज़" सीरियल का कार्यकारी निर्माता भी बने. आप यह काम मुंबई में करने भी गए, दर्जनों सिनोप्सिस लिखे, सिक्रिप्टिंग भी की।
वर्तमान: हराम की खायी नहीं, हलाल की मिली नहीं, विवश होकर आपके बड़े भाई ने दुबई बुला लिया मार्च 2002 में, 3-4 दिनों में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिल गयी, बस काम करते गए, पद भी बढ़ता गया. ताज अल मुलूक जनरल ट्रेडिंग एल०एल०सी० दुबई- संयुक्त अरब अमीरात में एडमिन एण्ड एच० आर० मैनेजर पद पर कार्यरत मार्च 2009, उस समय तक, जब तक अंन्तराष्ट्रिय आर्थिक मन्दी की मार पड़ती, लिहाजा लम्बे अवकाश जैसे साफ़्ट टर्मिनेशन का शिकार हुवे| इस बीच आपने क़लम पुन: उठा ली है. दिल्ली से संचलित कट्टरपंथी इस्लाम का विरोध करने वाली एक वेब साईट www.newageislam.net के लिये आपके कई लेख, टिप्पणियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं. आपका ब्लाग भी है,बस गूगल में आपका नाम सर्च करें, काफ़ी मसाला मिलेगा. आपकी पत्नी ज़किया भी यहीं एक स्कूल में कार्यरत थी और बेटी भी यहीं पढ़ती थी. अक्टूबर ३०,२००९ को तकदीर ने फ़िर करवट बदली और आपको मिसिसागा, कनाडा प्रवासी की हैसियत से पहुँचा दिया. आपका कहना है कि एकबार फ़िर से दो वक्त की रोटी खाने की टेबिल पर पहुँचे, इसकी जद्दोजहद अभी जारी है..!!!
भविष्य की योजनाएँ: अपने पिता के जीवन और प्रवासी जीवन के मनोविज्ञान पर शीघ्र ही उपन्यास लिखने की योजना है।
आकांक्षा: बस एक लेखक की हैसियत से मरुं।
अभिरुचियाँ: इतिहास, अर्थशास्त्र, इस्लाम से संबंधित पुस्तकें, लेख पढ़ना, उस्ताद गायकों की ग़ज़लें सुनना, नई नई जगहों का भ्रमण, फ़िशिंग करना, दोस्ती करना और उन्हें निभाना.प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेना और फोटोग्राफी.
संप्रति: शमशाद इलाही अंसारी,१२६,ब्लैकफ़ुट ट्रेल(बेसमेंट)पोस्टल कोड: एल५आर२जी७ मिसिसागा ओएन, कनाडा. मोबाइल:+१ ६४७ ५२० ०६६१
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काले बादलों से आकाश
अट गया था
मूसलाधार झमाझम भीषण वर्षा
प्रलय सूचक चमकती बिजली
एक के बाद एक तेज़
धारदार, प्रचण्ड हवाओं का वेग
जंगल पर टूट पडा़
बेदर्द वर्षा की बडी़-बडी़/मोटी-मोटी बूंदें
एक-एक पत्ते की कमर तोड़ती हुई
दैत्यकारी बेलगाम हवाएँ
हर वृक्ष की एक-एक भुजाओं को
मरोड़ने को आतुर
निर्जर वृक्षों के तने
एक के बाद एक
भयकंर चीखों के साथ टूटते
इस विराट क्रंदन से
पूरा जंगल अवाक था, स्तब्ध था, भयातुर था
बिजली,पानी,हवा, अंधकार
बादल और वेग
इन सब तत्वों के संश्रय
समस्त अस्त्रों से युक्त
एक अपराजित शक्ति बनकर
बिना किसी पूर्व-चेतावनी के
टूट पडे़ थे
अपने युध्दोंमादी प्रचण्ड प्रवाह के साथ
निशस्त्र,निरिह वन पर।
आकाश से बहती लगातार भीषण
जलधारा ने वृक्षों की
जडो़ं को पोला कर दिया था
फिर-फिर गोलबन्द होकर आते
हवाओं के बवण्डर
उनकी पुनरावृति
मानो, प्रतिबध्द हो
पूरे जंगल को नष्ट करने को
निरकुंशता से रौंद डा़लने को
सहमे,ड़रे वृक्ष
आकाशीय विपदा से भुजके
अघोषित युध्द की वर्जनाओं से दुबके,
प्रतिकार करते
खु़द को बचाते
फ़िर दूसरे की रक्षा करते
अपने तने से तना लगाकर
सहारा लेते-देते वृक्ष
उस तूफ़ानी रात का
रात भर प्रतिकार करते हैं
निशस्त्र प्रतिकार!
युगों समान दीर्घ रात्रि बीती
पौ फ़टी, बादल छ्टे, बंद हुई गर्जना, थमा पानी
अंधकार हटा,तूफ़ान बीता
अस्त-व्यस्त जंगल के वृक्षों ने
अपनी और आस-पास की सुध ली
रात भर बीती त्रासदी के बाद
किसको कितनी हानि हुई
इसका विश्लेषण किया
सूरज जब चढ़ा
रात भर के नुकसान की परतें खोलता गया
असंख्य वृक्ष उखड़ गये थे
असंख्य घायल हुये-अपंग हुये
भूमि पर बिछ गई थी
पत्तों की मोटी चादर।
प्रारंभिक उपचार-विचार के बाद
परस्पर सहमति बनी- कि
बीज वृक्ष के पास जाया जाये
इस विपदा से उपजे प्रश्न
उनका हल-समाधान पूछा जाये
जो जिस हाल में था
जैसा भी था
बीज वृक्ष की ओर
बढ़ने लगा-घिसटने लगा
बीज वृक्ष इस महा-वन के
ठीक केन्द्र में था
लुढकते-सरकते, घायल वृक्ष
वन मे चारों कोनों से
विशाल, विराट, भव्य बीज वृक्ष की दिशा में अग्रसर थे
वह इस वन का सबसे पुराना वृक्ष है
सबसे वृद्ध, प्रबुद्ध
सबसे कुशाग्र, बुध्दिमान और संभवतः
सबसे शक्तिशाली भी।
उसने बुद्ध को भी देखा था
महावीर को भी
तब वह छोटा था
उसने कई काल देखे
वह कालजयी है
समस्त कालों का एक मात्र दृष्टा
जंगल के कोने-कोने से
समस्त वृक्ष-गण वहाँ
एकत्रित हुए
सब वृक्ष गत् रात हुए विध्वंस का
कोई समाधान चाहते थे।
वृद्ध बीज वृक्ष
जिसने इस वन को जन्म दिया था
बड़े परिश्रम से इसे पल्लवित किया था
इस संहार को देख
वह भी बहुत व्यथित था।
बीज वृक्ष बोला:
जीने के लिये क़द में ऊँचा होना
आवश्यक नहीं
सुडौ़ल, सौष्ठव और गोल होना चाहिये।
विस्तार भूमियोत्तर नहीं
अंतर-भूमि होना चहिये।
अपनी जडों को भूमि के भीतर
विस्तार में गाड़ दो, दूर और दूर तक ले जाओ उसे
पृथ्वी के ऊपर दूर-दूर नहीं
पास-पास रहो
जितना अंतर कम होगा
उतने तुम शक्तिशाली होंगे
वृक्ष की किसी जाति विशेष से बैर न करो
सबको उगने दो, खिलने दो
इतना नज़दीक कि,
आवश्यकता पड़ने पर परस्पर
सहयोग मिल सके
संदेश सूत्र के साथ
बीज वृक्ष की सभा समाप्त हुई।
बीज वृक्ष की चारों दिशाओं में
उसकी विशाल भुजाएँ फ़ैली थी
भुजाओं से होकर उसकी जटाएँ
भूमि में धँस चुकी थी
वह जितना वृद्ध होता जाता
उसकी भुजाएँ और बढ़ती जाती
और नई जटाएँ बन जाती उसके
नये रक्त संचार का स्रोत
वह अपना समस्त भार
धरती के भीतर
भिन्न-भिन्न स्थानों से
भुजाओं से
जटाओं से बाँटता रहता
जितना वह भूमि के ऊपर था
उससे बडी़ उसकी जडे़ थी
भूमि के भीतर,
उसकी छाती में
जहाँ वह
चिरकाल से खड़ा था।
रचनाकाल: 15.09.2009
(भारत में जारी नव-जनवादी संघर्ष के दौरान शहीद हुए साथियों को समर्पित)
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तुम कब जानोगे?
तुम कब जानोगे?
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में
जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे।
दूषित नारों के व्यापारियों ने
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
उसके आधे परिवार के साथ...
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें
उन कथित नए नारों से
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
और मुशर्रफ़ तक जाता।
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या।
तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं।
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं।
तुम कब जानोगे
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है।
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
पीछे छोड कर गए थे
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है।
तुम कब जानोगे
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
जो विघटन का कारण बनी
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
कल-कारखाने चला सकते थे
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
संसार को बता सकते थे कि यह है
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान
तुक कब जानोगे
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
अधर में लटका है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को
तुम कब जानोगे
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
तुम कैसे समझोगे ?
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी
तुम कब जानोगे
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को
तुम कब जानोगे
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है
वह सत्य की भांति पवित्र है
कब तक झुठलाओगे उसे
कितनी नस्लें और भोगेंगी
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
क्यों नहीं बताते उन्हें
कि हम सब एक ही थे
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
मोहन जोदडो में
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
हमने ही बनाये थे
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ
हम सब थे महाभारत
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें
तुम कब जानोगे
कि झूठ के पैर नहीं होते
झूठ को नहीं मिलती अमरता
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
और क्या हो सकता है
तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आंधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है।
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी मांग सकता है हिसाब
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि हम भी खतावार हैं
हमने भी चली हैं सियासी चालें
हमने भी तोडी हैं कसमें
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
समझनी है जिन्नाह की नादानी
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए
कि तुम लौट आओगे
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
"जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा"
मैनें जब से होश सम्भाला है
मैं भी यही दोहराता हूँ
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
वो भी सवाल करते हैं
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
पचास साठ बरस की अलहदगी?
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
फ़िर आबाद हो गए हैं
वहाँ फ़िर से बस गए हैं
बचपन की किलकारियाँ,
जवानी की रौनक
और बुढा़पे का वैभव
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
और आम जामुन के पेड़
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
तुम्हें वापस आना होगा
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
तुम्ही तो छोडकर गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
बासठ बरस पूर्व
रचनाकाल : 13.08.2009(भारत-पाक विभाजन की 62वीं वर्षगाँठ की पूर्व संध्या पर)
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मैं सामान्यतय: लंबी कविता में रुचि नहीं रखता लेकिन इन कविताओं में कथ्य कुछ इस तरह बॉंधे रखता है कि कविता पूरी होने से पहले श्वॉस लेने को भी जी नहीं करता। न जाने क्या जादू है।
ReplyDeleteSASHAKT RACHNAAON KE LIYE BADHAAEE AUR SHUBH
ReplyDeleteKAMNAA.
अपनी जडों को भूमि के भीतर
ReplyDeleteविस्तार में गाड़ दो, दूर और दूर तक ले जाओ उसे
पृथ्वी के ऊपर दूर-दूर नहीं
पास-पास रहो
जितना अंतर कम होगा
उतने तुम शक्तिशाली होंगे
bahut sateek! par is sach ko ham kaash samjh paayen!
आदरणीय शम्श साहिब,
ReplyDeleteआपकी दोनोँ लम्बी कविताएं लम्बी होने के बावजूद असरदार व रोचक हैँ। इन कविताओँ मेँ पाठक को बांधने की क्षमता है।प्रगतिशील चिँतन को रुपाइत करती इन कविताओँ मेँ राष्ट्रीयता व जीवन मूल्य मुखर है।भाषा, शैली व बुनघट मेँ उत्कृष्ट।बधाई! कुछ अखरा सो लिख रहा हूं-
1.हवा निराकार है सो दैत्यकारी क्योँ ?
2.दैत्यकारी और बेलगाम दो विशेषणोँ की दरकार ही नहीँथी।हवाएं बेलगाम ही होती हैँ अतः केवल बेलगाम ठीक था।
3.एक-एक लिख दिया तो भुजाएं नहीँ,भुजा ही होगा।एक-एक न लिखते तो बहुवचन करते ।
आशा है अन्यथा न लेँगे।आपकी रचनाएं अच्छी लगी सो इन बातोँ पर ध्यान गया।
''तुम कब जानोगे
ReplyDeleteकि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को''
शमशाद की कविता मार्मिक भी है मारक भी । सैकड़ों सार्थक संदेश देती कविता जो मानस को झिंझोड़ती भी और बीक-बीच हल्के से दुलारती भी है। प्रश्नों का मीलों लंबा प्राचीर भी खड़ा करती है और सुरंग के अंतिम छोर पर आशा की किरण की ओर भी संकेत करती है।
प्रिय शम्स,
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा कविता के साथ भरपूर संवेदनात्मकता है.. सलाम तो करूंगा मगर पहले गले लगजा मेरे भाई. मैं सोचता था कि ये आदमी बेबाक क्यूं है..? दुनिया के सभी रंगों को न सिर्फ तुमने जाना, उसे जिया भी...!! ....... ईस अवकाश में मैंने बहुत कुछ लिखा है शम्स... तुम पढ़ लोगे, जनता हूँ |
"सबको उगने दो, खिलने दो
इतना नज़दीक कि,
आवश्यकता पड़ने पर परस्पर
सहयोग मिल सके
संदेश सूत्र के साथ
बीज वृक्ष की सभा समाप्त हुई।"
- जिओ और जीने दो...पासपास रहो, सहयोग दो, मज़हब को भूलकर इंसानियत का स्वीकार करो.. शम्स, मेरी बढ़ाई स्वीकारो |
-तुम्हारा भी
शम्स साहब लाजवाब और क्या कहूँ .आपकी कविताये लम्बी जरुर हैं पर बांध कर रखने में पूरी तरह कामयाब.क्या भाषा, क्या शब्द संयोजन, क्या लय और गति अद्भुत सवेष है और सर्वोपरि हैं आपकी संवेदनाएं .समय बड़ा बलवान है उफ्फ... फ... फ..सच दिल भर आया बेहद प्रभावशाली रचना नरेन्द्र जी का भी आभार इतनी संवेदनशील रचना की प्रस्तुति पर हाँ झूठ पर मैं कुछ कहना चाहूंगी
ReplyDelete" झूठ के पांव "
झूठ के पांव निकलते देखा है
सच पे सवार होते देखा है
कान्हा की आड़ में,
लीला का नाम ले, कदाचार देखा है
पवन सुतों के सीने में, व्यभिचार देखा है
मर्यादा पुरुशोत्त्मों को करते, भ्रष्टाचार देखा है
अपनी आयु को लीलने को,
जानकी को लाचार देखा है
दूर क्यों जाऊं कहीं,जब पतियों को,
करते दुश्शासन सा, दुराचार देखा है
किस किस की गवाही दूँ मैं,
कौन मानेगा
जब मैंने
झूठ के पांव निकलते देखा है
सच पे सवार होते देखा है
शम्स भाई, आपकी दोनों काव्य कृतियाँ मैंने बडे ध्यान से "आखर कलश" पर पढ़ीं, पढ़ कर आनन्द आया ! "बीज वृक्ष" आपकी शाहकार और मार्केदार रचना भी है और आपकी प्रौढ़ काव्य प्रतिभा की परिचायक भी ! इस कविता में शब्द बीज बनकर खुद बोल रहे हैं - उनको बुलवाया नहीं जा रहा ! पूरा मंज़र बिना किसी गैरज़रूरी तामझाम के एक के बाद एक स्लाइड के ज़रिये खुद-ब-खुद नजरों के सामने से गुज़र रहा मालूम पड़ता है - और ये ही इस कविता की beauty है !
ReplyDelete"तुम कब जानोगे" भी अच्छे ढंग से कही गयी है - मगर वहां शब्द मौन हैं और को बोलना पड़ रहा है ! कई जगह कविता भावुकता में भी बह गयी मालूम पड़ती है, एक दो जगह अख़बार बनते बनते भी रह गयी ! मगर इन सब के बावजूद इस कविता में दर्द है, मर्म है, त्रासदी से गुजरे इंसान के अन्दर की टीस है ! भाव और अभिव्यक्ति के स्तर पर भी कविता पूरी तरह कामयाब है !
बढिया..
ReplyDeleteशम्स साहेब आपकी कविता जितना रोमांचित करती हैं उतना ही प्रभावित करती है आपका परिचय... कितनी बेबाकी से अपना परिचय दिया है... जीवन के कितने ही रंग देखे आपने... आपका संघर्ष हमारे लिए प्रेरणा का श्रोत है... दोनों कविता आपके प्रगतिशील सोच को परिलक्षित कर रही हैं... सुंदर रचना ! पहली बार आपको पढ़ा हूँ और आपके कलम का मुरीद हो गया !
ReplyDeleteDonon hee kavitaayen samvedansheelta ke saath sachchaaiyaan bayaan kartee hain.
ReplyDeletewah..kamaal hai ji!
ReplyDeleteShams ji,
ReplyDeleteaapki dono hi kavitayen adbhut hai gazal ki taratamyata jaise bina kalam roke hue likha hua hai vichar bhang hue bina likha gaya ho ......
aapki kalam se behad prabhavit hun
शमशाद भाई
ReplyDeleteआपकी दोंनो कविताएं पढ़ी। बहुत सी अच्छी टिप्पणियाँ की जा चुकी हैं। मेरे कहने के लिए अब कुछ नहीं बचा। बड़ी कविताएं पढ़ने की मेरी आदत नहीं है।
पहली कविता बेहद चित्रात्मक और बिंबात्मक है। एक पूरा दृश्य जैसे साक्षात हो उठता है। पूरी कविता जैसे एक ही भाव को व्यक्त कर रही हैं। इतनी गठी हुई विचारवान कविता बेहद कम पढ़ने को मिलती है। दूसरी कविता भी बेहद अच्छी है। कविता ज्यादा विस्तार कविता के लिए अच्छा नही होता। पर यहाँ यह विस्तार खला नहीं।
इतनी अच्छी कविताओं के लिए आपको बधाई।
बीजवृक्ष -
ReplyDeleteभाषा प्रवहमान है; शब्द संयोजन सटीक. कुछ शब्द-चित्रों के विशेषण समीचीन नहीं लग रहे हैं किन्तु रचना में वर्त्तमान चित्रात्मकता के लिए आवश्यक ड्रामाई उभार इसका कारण है, इतना अवश्य समझ सकता हूँ, सो, स्वीकार्य हैं. अक्षरीदोष के प्रति संवेदनशीलता कुछ कहने को उकसा तो रही है, किन्तु लेखन माध्यम चूँकि टकणविधा एवं फौंट रुपांतरण है, अतः, इसके प्रति अन्यमनस्क बना हूँ.
"उसने बुद्ध को भी देखा था
महावीर को भी
तब वह छोटा था
उसने कई काल देखे.."
वह अश्वत्थ उस कालविशेष में छोटा अवश्य रहा होगा, भाई, परन्तु पीढ़ियों से प्राण पा कर परिसींचित होता हुआ ही आज प्रौढ़ बना है अपने तमाम उथले समाजियों के बीच, जिन्हें वह आखीर में संदेश देता दर्शाया गया है.
आपमें, शम्स भाई, कह सकने का साहस है, जिसका मूल भारतीय सर्वग्राही वैचारिकता में है या ऋक् वैदिक उस कथ्य में है जो अपने वातायन को हर ओर से खुला रखने का आग्रह करता है ताकि सभी दिशाओं से जागरुकता की मंद पवन प्रवेश पाती रहे.
सामयिक झंझावातों के रौद्रिक थपेड़े हर काल में पीड़ित करते रहे हैं. यह तो अपना भारतीय जीवन दर्शन है या उससे आप्लावित अपनी वैचारिक प्रक्रिया है या उससे निस्सृत पारस्परिक सामंजस्य के व्यापक भाव हैं जो हमें कालजयी बनाये हुए है. तभी तो धरती के पटल के समानान्तर उथला-छिछला विस्तार नहीं बल्कि गहरे धँसे वैचारिक ठोसपन के प्रति आग्रह है. पाश्चात्य संस्कृति या जीवन शैली के प्रति बजोड़ बयान है जिसका लिहाज सहज आकर्षित करता है, जिसकी शैली बरबस रिझाती है, परन्तु उससे प्रभावित हो कर जीता हुआ समाज काल का एक झंझा बर्दाश्त नहीं कर पाता. इकाई या ’एक जाति समाज’ की परिभाषा भारतीय मनीषियों ने कभी संकुचित रूप में नहीं की थी. यह संदेश मुखर रूप से संप्रेषित हुआ है आपकी इस रचना के माध्यम से.
तुम कब जानोगे -
ReplyDeleteबहुत खूब, भाई. क्या नहीं कहा और कितना नहीं कहा!
झपलाया, झुंझलाया, झिंझोड़ा, झाड़ा..
क्या कहूँ - सच का दुःख या दुःख का सच?!
"तुम कब जानोगे
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
..
तुम कैसे समझोगे ?
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी.. "
आँखें नम हो आईं हैं. इनके कोरों की नमी उस झूठ के प्रति है जो उन सतही नारों के माँजाये हैं, जिनके दुष्प्रभाव में बहक कर एक संस्कार को लसार कर आगे जाने की विप्लवी कवायद की गई थी.
मोहनजोदरो की नागरी शैली या सिंधु की लहरों साथ हिलोरें लेती सभ्यता को ’मेरे-तेरे’ के बंधन में बाँधने की निर्लज्ज कोशिश उसी कवायद की परिणति है.
शम्स भाई, आदर सहित निवेदन है.. पिता गुजरा नहीं है.
पिता मरा नहीं करते. बस अपना रूप बदल लेते हैं और हमी में जीते हैं.. एक बेटी की खुशी के लिए, एक बेटे के भविष्य के लिए. अपनी संस्कृति की जीवंतता के लिए.
ऐसे ही कहते रहिए, भले अनसुना होने की पीड़ा झेलने की नौबत क्यों न आ पड़े.
मैं भी ये दंश भोगता रहा हूँ. निवेदन है मेरी अपनी ही पंक्तियों के मधयम से -
"भीड़ भागमभाग में ठहरी गली है.
लेकिन क्या सुनाइये भ्री गली है."
बहुत अच्छी और साहसी रचना के लिए दिल से बधाई.