देवी नागरानी की चार ग़ज़लें

रचनाकार परिचय
नाम- देवी नागरानी
जन्म- 11 मई 1949 को कराची में
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ: ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)

प्रकाशन-प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।
"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।"
गजलः एक
किस्मत हमारी हमसे ही मांगे है अब हिसाब
ऐसे में तुम बताओ कि हम दें भी क्या जवाब.

अच्छाइयां बुराइयां दोनों हैं साथ साथ
इस वास्ते हयात की रंगीन है किताब.

घर बार भी यहीं है तो परिवार भी यहीं
घर से निकल के देखा तो दुनियां मिली ख़राब.

पूछूंगी उनसे इतने ज़माने कहां रहे
मुझको अगर मिलेंगे कहीं भी वो बेनकाब.

मुस्काते मंद मंद हैं हर इक सवाल पर
हर इक अदा जवाब की उनकी है लाजवाब.

पिघले जो दर्द दिल के, सैलाब बन बहे
आंखों के अश्क बन गए मेरे लिये शराब.

‘देवी’ सुरों को रख दिया मैंने संभालकर
जब दिल ने मेरे सुन लिया बजता हुआ रबाब.
॰॰
ग़ज़ल: दो
आंसुओं का रोक पाना कितना मुश्किल हो गया
मुस्करहट लब पे लाना कितना मुश्किल हो गया.

बेख़ुदी में छुप गई मेरी ख़ुदी कुछ इस तरह
ख़ुद ही ख़ुद को ढूंढ़ पाना कितना मुश्किल हो गया.

जीत कर हारे कभी, तो हार कर जीते कभी
बाज़ियों से बाज़ आना कितना मुश्किल हो गया.

बिजलियों का बन गया है वो निशाना आज कल
आशियाँ अपना बचाना कितना मुश्किल हो गया.

हो गया है दिल धुआं-सा कुछ नज़र आता नहीं,
धुंध के उस पार जाना कितना मुश्किल हो गया.

यूँ झुकाया अपने क़दमों पर ज़माने ने मुझे
बंदगी में सर झुकना कितना मुश्किल हो गया.

साथ ‘देवी’ आपके मुश्किल भी कुछ मुश्किल न थी
आपके बिन मन लगाना कितना मुश्किल हो गया.
॰॰
गज़लः तीन
कौन किसकी जानता है आजकल दुश्वारियां
जानते हैं लोग अपनी बेसरो सामानियां.

मैंने ग़ुरबत में हमेशा देखी है आसानियां
दौल्तो-सर्वत से लेकिन बढ़ गई दुशवारियां.

मुस्कराकर राहतों का लुत्फ़ लेते हैं सभी
रास्ते दुश्वार हों तो बढ़ती है बेताबियां.

ढेर से तोहफे हमें देती है हर पल ज़िंदगी
उनके बदले दिन ब दिन आती रहीं दुश्वारियां.

चाहती हूं मैं मिटा दूं हर नये उस अक्स को
लौट कर रह रह के फिर आ जाती हैं परछाइयां.

साया भी मेरा मुझीसे है ख़फा ‘देवी’ बहुत
नागवार उसको भी हैं शायद मेरी नादानियां.
॰॰

गजलः चार
मेरा शुमार कर लिया नज़ारों में जाने क्यों
लाकर खड़ा किया है सितारों में जाने क्यों?

गुलशन में रहके ख़ार मिले मुझको इस क़दर
अब तो खिज़ां लगे है बहारों में जाने क्यों?

वैसे तो बात होती है उनसे मेरी सदा
पर आज कह रहे हैं इशारों में जाने क्यों?

सौ सौ को जो तरसते रहे उम्र भर सदा
होती है उनकी गिनती हज़ारों में जाने क्यों?

गै़रत वहां मिली है जहां ढूंढा अपनापन
देखी न पुख़्तगी ही सहारों में जाने क्यों.

वादे वही रहे हैं, वफाएँ वही रहीं
उठ-सा गया यक़ीन ही यारों में जाने क्यों?
*******
(चराग़े-दिल)

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6 Responses to देवी नागरानी की चार ग़ज़लें

  1. aadrniy nagrani ji ki rchnano ki pripkvta hi un ki pahchan hai doosra vishy ki gmbhirta bhi un ki rchnao ka vaishishtyhai
    main bdhai v shubhkamnaayen prdan krta hoon aasha hai aap swikar krengi
    dr.vedvyathit@gmail.com

    ReplyDelete
  2. ग़ज़लें तो आपकी चारों बेहतरीन हैं लेकिन ग़ज़ल-2 की बात ही कुछ और है।

    ReplyDelete
  3. आदरणीय देवी नागरानी जी,

    आपकी चारों ही ग़ज़लें बहुत ही दिलकश और पुरअसर हैं ! पढ़ कर दिल को सुकून मिला ! पहली ग़ज़ल में मुश्किल रदीफ़ का (हिसाब, जवाब, किताब, बेनकाब, शराब,लाजवाब और रबाब) का निर्बाह बहुत ही कुशलता से किया गया है ! इस ग़ज़ल का मक़ता मेरी नज़र में हुस्न-ए-ग़ज़ल है !

    दूसरी ग़ज़ल में भी काफिया रदीफ़ को बहुत ही सुन्दरता के निभाया गया है ! इतनी लम्बी रदीफ़ को इस बखूबी से इस्तेमाल करना हरेक के बस की बात नही है ! आखरी शेअर के दूसरे मिसरे (बंदगी में सर झुकना कितना मुश्किल हो गया) में शायद टाईपिंग की त्रुटी की वजह से "झुकाना" की जगह "झुकना" लिखा गया है, इसे दुरुस्त कर लें !

    आपकी तीसरी ग़ज़ल में हुस्न-ए-मतला का इस्तेमाल बहुत ही अच्छा लगा जो काबिल-ए-दाद भी है और काबिल-ए-दीद भी ! निम्नलिखित शेअर इस ग़ज़ल की जान हैं :

    //मुस्कराकर राहतों का लुत्फ़ लेते हैं सभी
    रास्ते दुश्वार हों तो बढ़ती है बेताबियां.//
    //चाहती हूं मैं मिटा दूं हर नये उस अक्स को
    लौट कर रह रह के फिर आ जाती हैं परछाइयां.//

    चौथी गज़ल का मतला बहुत ही बढ़िया कहा है आपने, मगर इसके आखरी शेअर का पहला मिसरा दोबारा से आपकी नज़रे-सानी चाहता है ! बहरहाल इतने सुंदर आशार हम सबके साथ साझा करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका ! सादर !

    ReplyDelete
  4. बेख़ुदी में छुप गई मेरी ख़ुदी कुछ इस तरह
    ख़ुद ही ख़ुद को ढूंढ़ पाना कितना मुश्किल हो गया.
    वाह...कितना उम्दा कलाम है
    साथ ‘देवी’ आपके मुश्किल भी कुछ मुश्किल न थी
    आपके बिन मन लगाना कितना मुश्किल हो गया.
    कमाल का अंदाज़ है.
    देवी जी की ग़ज़लों से कितना कुछ सीखने को मिला है.

    ReplyDelete
  5. Main Tahe dil se shukrguzaar hoon is protsahan ke liye jo adeebon ki mujhe milti rahi hai.
    Yograj Prabhakar ji khas taur se Jin baaton ke liye unhone sahi ishaara kiya hai. Gazal lekhan to ek safar hai jahan aise kai padaav aate hain aur har mod ek naya raasta roushan hota hai.
    appreciating......

    ReplyDelete
  6. देवी नागरानी की ग़ज़लें उम्दा हैं और जिस तरह तराशी गयी हैं ,बधाई की हक़दार हैं .

    ReplyDelete

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