(०८-०१-१९४४ से ०९ दिसम्बर २००६)
काव्य प्रेमियों के मानस को अपनी कलम और वाणी से झकझोरने वाले जादुई कवि का नाम है 'कैलाश गौतम'। जनवादी सोच और ग्राम्य संस्कृति का संवाहक यह कवि दुर्भाग्य से अब हमारे बीच नहीं है। आकाशवाणी इलाहाबाद से सेवानिवृत्त होने के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को आजादी के पूर्व स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए इस महान कवि का ९ दिसम्बर २००६ को निधन हो गया। कैलाश गौतम को अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं से जो प्रशंसा या खयाति मिली वह दशकों बाद किसी विरले कवि को नसीब होती है। कैलाश गौतम जिस गरिमा के साथ हिन्दी कवि सम्मेलनों का संचालन करते थे उसी गरिमा के साथ कागज पर अपनी कलम को धार देते थे। ८ जनवरी १९४४ को बनारस के डिग्घी गांव (अब चन्दौली) में जन्मे इस कवि ने अपना कर्मक्षेत्र चुना प्रयाग को। इसलिए कैलाश गौतम के स्वभाव में काशी और प्रयाग दोनों के संस्कार रचे-बसे थे। जोड़ा ताल, सिर पर आग, तीन चौथाई आन्हर, कविता लौट पड ी, बिना कान का आदमी (प्रकाशनाधीन) आदि प्रमुख काव्य कृतियां हैं जो कैलाश गौतम को कालजयी बनाती हैं। जै-जै सियाराम, और 'तम्बुओं का शहर' जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास अप्रकाशित रह गये। 'परिवार सम्मान', प्रतिष्ठित ऋतुराज सम्मान और मरणोपरान्त तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को 'यश भारती सम्मान' (राशि ५.०० लाख रुपये) से इस कवि को सम्मानित किया। अमौसा क मेला, कचहरी और गांव गया था गांव से भागा कैलाश गौतम की सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाएं हैं। आज कैलाश गौतम के दो गीत हम अपने अन्तर्राष्ट्रीय / राष्ट्रीय पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं.
फूला है गलियारे का
कचनार पिया
तुम हो जैसे
सात समन्दर पार पिया |
हरे- भरे रंगों का मौसम
भूल गये
खुले -खुले अंगों का मौसम
भूल गये
भूल गये क्या
फागुन के दिन चार पिया |
जलते जंगल कि हिरनी
प्यास हमारी
ओझल झरने की कलकल
याद तुम्हारी
कहाँ लगी है आग
कहाँ है धार पिया |
दुनियां
भूली है अबीर में
रोली में
हरे पेड़ की
खैर नहीं है
होली में
सहन नहीं होती
शब्दों की मार पिया |
***
बिना तुम्हारे सूना लगता
फागुन कसम गुलाल की
हंसकर देने लगी चुनौती
हवा गुलाबी ताल की |
सरसों का आंचल लहराया
पानी चढा टिकोरों में
महुआ जैसे सांप लोटता
रस से भरे कटोरों में
नींद नहीं आँखों में कोई
बदली है बंगाल की |
देह टूटती ,गीत टूटता
छंद टूटते फागुन में
बैरी हुए हमारे
बाजूबंद टूटते फागुन में
रोज दिनों दिन छोटी होती
अंगिया पिछले साल की |
जाने कैसे -कैसे सपने
देखा करती रातों में
आग लगी आंचल में जैसे
दरपन टूटा हाथों में
डर है कोई सौत न छीने
बिंदिया मेरे भाल की |
***
कवि -कैलाश गौतम [जोड़ा ताल गीत संग्रह ]
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति बधाई भाई नरेंद्र जी
ReplyDeleteye to mere priy kawi hain
ReplyDeletedo kawitao ko padhwane ka shukriya
kailash Gautam ji rachtnatmak oorja se main lagataar mutasir rahi hooon.
ReplyDeleteFaagun par geet ati sundari, saptrangi aur layatmak laga.
daad ke saath